तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
  सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
  मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
  फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।
  अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,
  भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
  हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
  आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।
  पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
  भरी हुई है जिसके अंदर परिमल-मधु-सुरिभत हाला,
  माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
  झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।
  प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
  छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
  छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
  हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।
  मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
  भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
  हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
  छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।
  साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
  तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
  अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
  प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।
  उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
  बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
  जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
  सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।
  अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
  किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
  पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
  तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।
  किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
  किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
  किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
  किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।
  साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
  जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
  योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।

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