गडरिये कितने सुखी हैं । 
न वे ऊँचे दावे करते हैं 
न उनको ले कर 
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं। 
जबकि 
जनता की सेवा करने के भूखे 
सारे दल भेडियों से टूटते हैं। 
ऐसी-ऐसी बातें 
और ऐसे शब्द सामने रखते हैं 
जैसे कुछ नहीं हुआ है 
और सब कुछ हो जाएगा । 
जबकि 
सारे दल 
पानी की तरह धन बहाते हैं, 
गडरिये मेडों पर बैठे मुस्कुराते हैं 
– भेडों को बाड में करने के लिए 
न सभाएँ आयोजित करते हैं 
न रैलियाँ, 
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ, 
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर 
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं, 
स्वेच्छा से 
जिधर चाहते हैं ,उधर 
भेडों को हाँके लिए जाते हैं । 
गडरिये कितने सुखी हैं । 
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